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Harivash Puran (हरिवंशपुराण) Code 1589

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*हरिवंश पुराण* (Harivansh Purana) हिन्दू धर्म के पुराणों में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो मुख्यतः भगवान कृष्ण और यादव वंश की कथा पर केंद्रित है। इसे *महाभारत* का एक विस्तार माना जाता है और इसमें कृष्ण के जीवन और कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है।

**मुख्य बातें:**

1. **रचना और संरचना**:
– *हरिवंश पुराण* को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है:
1. **हरिवंश**: इस भाग में भगवान कृष्ण की जन्म कथा, बाल्यकाल, यज्ञ, और उनके महत्वपूर्ण कर्मों का वर्णन है।
2. **ऋषि वंश**: इसमें विभिन्न ऋषियों की कहानियाँ और उनके योगदान की जानकारी है।
3. **आदी पर्व**: यादव वंश के वंशजों की कथा और कृष्ण के परिवार का विवरण मिलता है।

2. **सामग्री और महत्व**:
– *हरिवंश पुराण* में भगवान कृष्ण के जीवन के अद्भुत और दिव्य पहलुओं की व्याख्या की गई है। इसमें उनके बाल क्रीड़ाएँ, उनके द्वारा किए गए चमत्कार और उनके जीवन के महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल हैं।
– यह पुराण कृष्ण भक्ति पर जोर देता है और भक्तों को कृष्ण की पूजा और आराधना की प्रेरणा देता है।

3. **भाषा और स्वरूप**:
– यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया है, लेकिन हिंदी और अन्य भाषाओं में इसके अनुवाद और टीकाएँ उपलब्ध हैं।
– कई हिंदी संस्करणों में ग्रंथ की आसान और सरल भाषा में प्रस्तुति की जाती है ताकि इसे अधिक लोग समझ सकें।

4. **इतिहास और काल**:
– *हरिवंश पुराण* की रचना 4वीं-5वीं सदी ईस्वी के आस-पास की मानी जाती है। हालांकि इसमें वर्णित कथाएँ और परंपराएँ पुरानी हैं और वे वेद और उपनिषदों से जुड़ी हैं।

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Description

हरिवंशपुराण में तीन पर्व (हरिवंशपर्व, विष्णुपर्व तथा भविष्यपर्व) तथा ३१८ अध्याय हैं।

हरिवंशपुराण के भविष्यपर्व में पुराण पंचलक्षण के सर्गप्रतिसर्ग के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्म के स्वरूप, अवतार गणना और सांख्य तथा योग पर विचार हुआ है। स्मृतिसामग्री तथा सांप्रदायिक विचारधाराएँ भी इस पर्व में अधिकांश रूप में मिलती हैं। इसी कारण यह पर्व हरिवंशपर्व और विष्णुपर्व से अर्वाचीन ज्ञात होता है।

विष्णुपर्व में नृत्य और अभिनयसंबंधी सामग्री अपने मौलिक रूप में मिलती है। इस पर्व के अंतर्गत दो स्थलों में छालिक्य का उल्लेख हुआ है। छालिक्य वाद्यसंगीतमय नृत्य ज्ञात होता है। हाव भावों का प्रदर्शन इस, नृत्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। छालिक्य के संबंध में अन्य पुराण कोई भी प्रकाश नहीं डालते।

विष्णुपर्व (91 26-35) में वसुदेव के अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर भद्र नामक नट का अपने अभिनय से ऋषियों को तुष्ट करना वर्णित है। इसी नट के साथ प्रद्युम्न, सांब आदि वज्रनाभपुर में जाकर अपने कुशल अभिनय से वहाँ दैत्यों का मनोरंजन करते हैं। यहाँ पर “रामायण” नामक उद्देश्य और “कौबेर रंभाभिसार” नामक प्रकरण के अभिनय का विशद वर्णन हुआ है।

हापकिंस ने हरिवंश को महाभारत का अर्वाचीनतम पर्व माना है। हाजरा ने रास के आधार पर हरिवंश को चतुर्थ शताब्दी का पुराण बतलाया है। विष्णुपुराण और भागवतपुराण का काल हाजरा ने क्रमश: पाँचवीं शताब्दी तथा छठी शताब्दी के लगभग निश्चित किया है। श्री दीक्षित के अनुसार मत्स्यपुराण का काल तृतीय शताब्दी है। कृष्णचरित्र, रजि का वृत्तांत तथा अन्य वृत्तांतों से तुलना करने पर हरिवंश इन पुराणों से पूर्ववर्ती निश्चित होता है। अतएव हरिवंश के विष्णुपर्व और भविष्यपर्व को तृतीय शताब्दी का मानना चाहिए।

हरिवंश के अंतर्गत हरिवंशपर्व शैली और वृत्तांतों की दृष्टि से विष्णुपर्व और भविष्यपर्व से प्राचीन ज्ञात होता है। अश्वघोषकृत वज्रसूची में हरिवंश से अक्षरश: समानता रखनेवाले कुछ श्लोक मिलते हैं। पाश्चात्य विद्वान् वैबर ने वज्रसूची को हरिवंश का ऋणी माना है और रे चौधरी ने उनके मत का समर्थन किया। अश्वघोष का काल लगभग द्वितीय शताब्दी निश्चित है। यदि अश्वघोष का काल द्वितीय शताब्दी है तो हरिवंशपर्व का काल प्रक्षिप्त स्थलों को छोड़कर द्वितीय शताब्दी से कुछ पहले समझना चाहिए।

हरिवंश में काव्यतत्व अन्य प्राचीन पुराणों की भाँति अपनी विशेषता रखता है। रसपरिपाक और भावों की समुचित अभिव्यक्ति में यह पुराण कभी कभी उत्कृष्ट काव्यों से समानता रखता है। व्यंजनापूर्ण प्रसंग पौराणिक कवि की प्रतिभा और कल्पनाशक्ति का परिचय देते हैं।

हरिवंश में उपमा, रूपक, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, यमक और अनुप्रास ही प्राय: मिलते हैं। ये सभी अलंकार पौराणिक कवि के द्वारा प्रयासपूर्वक लाए गए नहीं प्रतीत होते।

काव्यतत्व की दृष्टि से हरिवंश में प्रारंभिकता और मौलिकता है। हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण, भागवतपुराण और पद्मपुराण के ऋतुवर्णनों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि कुछ भाव हरिवंश में अपने मौलिक सुंदर रूप में चित्रित किए गए हैं और वे ही भाव उपर्युक्त पुराणों में क्रमश: अथवा संश्लिष्ट होते गए हैं।

सामग्री और शैली को देखते हुए भी हरिवंश एक प्रारंभिक पुराण है। संभवत: इसी कारण हरिवंश का पाठ अन्य पुराणों के पाठ से शुद्ध मिलता है। कतिपय पाश्चात्य विद्वानों द्वारा हरिवंश को स्वतंत्र वैष्णव पुराण अथवा महापुराण की कोटि में रखना समीचीन है।

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